उत्तराखंड देहरादूनbhaddu the anciant cooking pot in uttarakhand

कभी पहाड़ में हर रसोई की शान था ‘भड्डू’...अब जाने कहां गए वो दिन

‘भड्डू’ किसी जमाने में पहाड़ों में इस्तेमाल होने वाला बर्तन बचपन की उन यादों को ताजा कर देता है जिसे हम सालों पहले अपनी जिंदगी से दफन कर आगे बढ़ गए।

उत्तराखंड: bhaddu the anciant cooking pot in uttarakhand
Image: bhaddu the anciant cooking pot in uttarakhand (Source: Social Media)

देहरादून: किसी घर के कोने में पड़े भड्डू को देखकर राजकपूर साहब की फिल्म ‘मेरा नाम जोकर’ का वो गीत याद आता है कि ‘जाने कहां गए वो दिन..’। सच में वो दिन लद गए, पहाड़ों में बिताए वो दिन बस अब यादों में ही बचे हैं। राज्य समीक्षा की इस लेख में हम बात कर रहे हैं उस भड्डू की जिसके बारे में शायद युवा पीढ़ी को नहीं पता। और जो पुरानी पीढ़ी है वो भूल चुकी है। एक ज़माने में हर घर में भड्डू हुआ करता था। जिसमें पके खाने की बात ही कुछ और हुआ करती थी। लेकिन अब वो भड्डू पहाड़ों में नजर नहीं आता। और किसी घर में नजर आता भी है तो कोने में पड़ा। अगर युवा पीढ़ी को नहीं पता तो बता दें कि भड्डू पीतल या कांसे का बर्तन होता है। कांसे की मोटी परत से बना बर्तन जिसका निचला हिस्सा चौड़ा और भारी जबकि ऊपरी हिस्सा संकरा होता है। पहाड़ों में सदियों से भड्डू का इस्तेमाल दाल और मीट पकाने के लिए किया जाता था।

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ये भड्डू कोई आम भड्डू नहीं क्योंकि इसके साथ पहाड़ों में रहने वाले पुराने लोगों की यादें जुड़ी हुई हैं। वो यादें जो आज भी आती हैं तो मुंह से लार टपकने लगती है। क्यों उसमे बने खाने का स्वाद ही कुछ और होती थी। भड्डू की जगह किचन में नए घुसपैठिए ने ले ली है, जिसे हम कुकर कहते हैं। भड्डू में खाना पकाने में वक्त लगता था। शायद यही वजह है कि इस भागती दौड़ती जिंदगी में भड्डू की जगह कुकर ने ले ली। लेकिन कुकर में बने खाने में वो स्वाद कहां जो भड्डू में हुआ करता था। ये भड्डू सिर्फ एक भड्डू नहीं इससे हमें कई संदेश भी मिलते थे। भड्डू से हमें संयम का संदेश मिलता था। क्योंकि इसमें खाना पकाने में वक्त लगता था। इस बीच आपको संयम बनाए रखना होता था। लेकिन कुकर में झट, दाल डालिए और पट बन जाती है। भड्डू हमें फुर्सत के उन पलों का अहसास भी दिलाता है। जिसे हम आज कहीं खो चुके हैं। शायद यही वजह है कि आज ना वो दिन रहे और ना ही हमारी यादों में बसा वो भड्डू।

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भड्डू छोटे, बड़े कई आकार का होता था। छोटा भड्डू परिवार के काम आता था तो बड़ा भड्डू गांव के। गांव में किसी की शादी होती थी तो बड़े भड्डू में ही दाल बनती थी। बड़ा भड्डू या ग्याडा भी पंचायत के बर्तन होते थे। और अगर किसी के पास ग्याडा होता था तो वो उसे पंचायत को दे देता था। ताकि उसका इस्तेमाल शादी में किया जा सके। शादी में इस्तेमाल होने वाला भड्डू काफी भारी हुआ करता था। वो इतना भारी होता था कि खाली होने पर भी दो लोग मिलकर ही उसे चूल्हे पर रख पाते थे। जिस परिवार में भड्डू होता था उसके पास इसे चूल्हे से उतारने के लिए संडासी भी होती थी। वैसे भड्डू को संडासी से निकालना हर किसी के वश की बात नहीं होती थी। आज भी पहाड़ में कई परिवारों के पास भड्डू तो है, लेकिन भड्डू का इस्तेमाल कम ही होता है। भड्डू में ज्यादातर उड़द और राजमा की दाल बनाई जाती थी। इन दालों को रात में भिगोकर रखा जाता था और सुबह इन्हें भड्डू में पकाया जाता था। भड्डू की बनी गरमागर्म दाल खाने के बाद इंसान दुनिया के किसी भी स्वाद को भूल जाएगा। ऐसा हुआ करता था भड्डू में पका हुआ दाल। हम तो बस यही कहेंगे कि अगर आपके पास भड्डू है तो उसका इस्तेमाल कीजिए ये आपके लिए सेहतमंद भी होगा और स्वाद भी। आप अपने पहाड़ और अपनी यादों से जुड़े रहिए, क्योंकि ये यादें बेहद कीमती हैं।